July 1, 2013

जानवरों के जीवन की कोई कीमत नही होती?????

केदारनाथ में जो भी हुआ सभी जानते हैं। आप सभी तो जानते ही होंगे कि कितने जीवो ने अपनी जान गवाई है। जीवो ने —– क्या जीव कहना उचित होगा।

नही – नही जीव कहना कदापि उचित नही है क्यूंकि सभी मरने वालो में तो सिर्फ इंसानों के नाम शामिल हैं, हम जानवरों का नाम तो कहीं लिया ही नही गया। अख़बार वाले, टी वी वाले सभी मृतको में सिर्फ इंसानों की ही तो गिनती कर रहे हैं कि इतने लोगो की केदारनाथ में हुए हादसे में मौत हो गयी, हम जानवर तो किसी को याद ही नही रहे।

शायद हमारी जान की कोई कीमत नही है। और हो भी क्यों हम इंसान थोड़ी हैं जिनके मरने पर कोई रोये या जिनके मरने पर शोक मनाया जाये। हम जानवर हैं —- जानवर और जानवरों के मरने पर भी कहीं कोई शोक मनाता है।

अब आप सोच रहे होंगे कि मैं कौन पागल हूँ जो ये सब बाते कर रहा हूँ, कौन हूँ जिसे जानवरों की इतनी फ़िक्र हुए जा रही है कि उनकी मौत की गिनती करने को कह रहा है। मेरी कहानी अगर आप इंसान सुनेगे तो शायद आप भी रो देंगे हम जानवरों की किस्मत पर। और शायद आप इंसानों को भी एहसास हो जाये कि हम जानवरों में भी जीवन होता है , हमे भी दर्द होता है ठीक आप इंसानों की तरह ही।

मैं एक गाँव में रहता था। एक मिट्टी सप्लाई का काम करने वाले के साथ। बहुत खुश था मैं अपनी जिन्दगी में। हम जानवरों को वैसे भी खुश रहने के लिए बहुत ज्यादा चीजो की आवश्यकता नही होती आप इंसानों की तरह। हमे तो बस दो वक़्त का पेट भर खाना और थोडा सा आराम चाहिए होता है एक सुखी व ख़ुशी भरे जीवन के लिए। दिन भर जी तोड़ मेहनत करता था। बहुत से लोगो के सपनो के घर मेरे द्वारा ढोई गयी मिटटी से बने हैं। उन घरो में शायद कोई घर आप में से किसी का भी हो। एक दम मस्त चल रही थी मेरी जिन्दगी लेकिन जैसा कि आप सब इंसान कहते हैं कि ख़ुशी ज्यादा दिन नही रहती। मेरी जिन्दगी में भी एक बहुत बड़ा बदलाव आया और मैं अपनी उस मस्त सी लाइफ को छोड़कर यहाँ पहाड़ो में आ गया। मेरे मालिक ने मुझे ज्यादा पैसे कमाने के लिए यहाँ पहाड़ो में भेज दिया। यहाँ आकर भी मुझे काम तो वही करना पड़ता था, बोझ ढोने का, फ़र्क सिर्फ इतना था कि वहां मैं मिटटी ढोया करता था और यहाँ पहाड़ो में आप इंसानों को। खैर जाने दीजिये, आप लोग ज्यादा सहानुभूति मत जताइए, देखा जाये तो बोझ ढोना ही तो मेरा काम है अगर नही ढोऊंगा तो फिर पेट भर खाना कहाँ से मिलेगा।

ऐसे ही आप इंसानों को आपकी मंजिल तक पहुंचाते- पहुंचाते 5-6 साल कैसे गुजर गये पता ही नही चला। अब तो इन पहाड़ी हवाओ की भी आदत हो चुकी थी। यहाँ भी जिन्दगी वैसी ही हो गयी थी जैसे गाँव में हुआ करती थी। दो वक़्त पेट भर खाना और आराम यहाँ भी आराम से मिल जाता था बस यहाँ काम थोडा ज्यादा करना पड़ता था। लेकिन मैं खुश था यहाँ भी लेकिन फिर वही जैसा कि आप सब इंसान कहते हैं कि खुशियां ज्यादा दिन नही ठहरती, मेरे पास से भी खुशियाँ जाने को तैयार खड़ी थी, लेकिन शायद इस बार सब कुछ अपने साथ लेकर।

सब रोज की तरह ही चल रहा था। मैं और मेरा मालिक दोनों अपने अपने काम में व्यस्त थे आखिर रोज की तरह उस रोज भी तो हमे बहुत सारे पैसे कमाने थे ताकि मेरा मालिक अपने सब अधूरे सपनो को पूरा कर सके। अरे हाँ भई सिर्फ मेरे मालिक को अपने अधूरे सपने पूरे करने थे क्यूंकि मेरा तो कोई सपना ही नही था न और होगा भी कैसे हम जानवरों के कोई सपने नही होते क्यूंकि सपने तो उनके होते हैं जिन्हें आज़ादी होती है और हम जानवर तो आप इंसानों के गुलाम होते हैं न, तो फिर मेरे सपनो की तो बात ही कहाँ आती है। खैर जाने दीजिये सपनो की कहानी यही ख़त्म करते हैं और वापस उतर आते हैं अपनी उसी हकीक़त की जमीं पर। जैसे कि मैंने बताया सब रोज की तरह ही चल रहा था बस समय की चाल को छोड़कर। समय भी वैसे तो अपनी उसी रफ़्तार से चल रहा था जिस रफ़्तार से रोज चलता है लेकिन उस दिन समय की चाल कुछ बदली – बदली सी नज़र आ रही थी मुझे। अचानक मौसम ने करवट बदली, बादलो ने जैसे ही पहाड़ो, नदियों, धरती और साथ साथ हमे भी भिगोना शुरू किया न जाने कहाँ से तेज़ हवाओ ने भी आकर बादलो के सुर में सुर मिला दिया जैसे दोनों में सुरों की महा जंग छिड़ी हो जिसे जीतना ही दोनों का एक मात्र लक्ष्य हो। बादल जिस रफ़्तार से पानी बरसाते, हवाएं उससे कही ज्यादा तेजी से सर-सर-सर करती हमे छूकर जा रही थी जैसे हमे भी अपने साथ ले जाना चाहती हो और जैसा कि मुझे अंदेशा था समय ने अपनी चाल से नदियों की रफ़्तार को बदल दिया था। बादल से बरसते पानी और हवाओ की तेज रफ़्तार को देख कर जैसे नदियों में भी जोश आ गया था आज सब कुछ अपने साथ बह ले जाने का और उसने किया भी तो वही।

बादलो और हवाओ से जीतने के चक्कर में नदियों ने सारी सीमाये तोड़ दी थी। हम जानवर, आप इंसान, ऊँची- ऊँची इमारते, पुल सब नदियों के तेज बहाव में बह गये थे। लड़ा तो मैं भी था आखरी दम तक आप इंसानों की तरह ही कि शायद बचा लूँगा खुद को मगर शायद जिन्दगी इतनी ही थी। पानी का तेज बहाव मुझे भी बहा ले गया था और सिर्फ मुझे ही नही बल्कि बहुत से इंसानों को, गाये- भैसों को, और न जाने कितने जीवो को। उन चीटियों, कीड़े- मकोडो का नाम लेना तो बेकार ही होगा, उनके मरने से तो किसी का कुछ नही बिगड़ता है। वो सभी तो दुनिया में होते भी हैं इसका भी पता कम लोगो को होता है और जिनके होने का ही न पता हो उनके मरने का भी क्या फ़र्क पड़ेगा।

अपनों को अपनों से बिछड़ते देखा था मैंने। कैसे लोग चिल्ला रहे थे, रो रहे थे, मदद के लिए एक दुसरे को पुकार रहे थे। आप लोगो की आवाज़ को तो सुनने वाले आ गये थे जिन्होंने आप लोगो को बचाने में कोई कसर नही छोड़ी। वो लोग जो फसे हुए थे मगर जिन्दा थे उन्हें बचा लिया गया लेकिन हम जानवर, हमे तो बोलना भी नही आता और अगर बोलते भी हैं तो आप इंसानों को समझ नही आता। न जाने मुझ जैसे कितने जानवरों ने इसलिए दम तोड़ दिया था क्यूंकि उन्हें बचाने वाला कोई नही था।

शायद इसीलिए क्यूंकि हम जानवरों के जीवन की कोई कीमत नही होती।।।।।

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